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आतंकियों पर आर्मी के उस एनकाउंटर की सच्चाई जो नौ दिन चला और मीडिया का किरदार

जम्मू कश्मीर के पुंछ इलाके में हुए एनकाउंटर की स्टोरी बीबीसी में पढ़ रहा था। कुछ सवाल उठाए गए थे। अक्टूबर में शुरू हुआ एनकाउंटर और सर्च ऑपरेशन महीने से भी ज्यादा चला। हमारे नौ जवान शहीद हुए। जिस इलाके का जिक्र है, वो एकदम एलओसी के साथ है। घने जंगल भी हैं। बीच में असंख्य छोटे नाले आदि भी हैं। हजारों की तादाद में सैनिक यहां आतंकियों को तलाशते रहे लेकिन कुछ हाथ नहीं लगा। इस बीच आतंकियों के कथित मददगार भी पूछताछ के लिए पकड़े गए। यह भी सामने आया कि इन आतंकियों को पाकिस्तान से गाइड किया जा रहा था आदि। स्टोरी में सवाल ये उठाए गए थे कि इतने जोरदार अभियान के बावजूद एक भी आतंकी क्यों नहीं मारा जा सका। 

मुझे लगता है सवाल उठाना बेहद आसान काम है। सवाल उठाने से पहले उस जगह या हालात का विश्लेषण जरूरी है जहां ये सब हुआ था। असल में ये बेहद ही संवेदनशील इलाका है। इसी तरह के एक एनकाउंटर को इसी क्षेत्र में 12 साल पहले मैनें भी कवर किया था। यह एरिया कश्मीर घाटी में घुसने के लिए आतंकियों का ट्रांजिट पॉइंट जैसा भी रहा है। जंगल बेहद घने हैं और प्राकृतिक गुफाऐं आतंकी घर की तरह इस्तेमाल करते हैं। उन्हें ढूंढना भी मुश्किल हो जाता है।

ये 31 दिसंबर 2008 की बात है। पता चला कि पुंछ के मेंढर इलाके में भाटीधार के जंगलों में भीषण मुठभेड़ शुरू हो गई है। एक गुप्त सूचना पर आर्मी ने वहां सर्च ऑपरेशन चलाया। कार्रवाई में पहले ही दिन हमारी सेना के दो जवान शहीद हो गए। एक पुलिस कर्मी भी शहीद हुआ। साथ ही दावा किया गया कि चार आतंकी मारे गए हैं। गंभीर बात यह पता चली कि आतंकियों ने बंकर भी बना रखे  हैं और प्राकृतिक गुफाओं को भी इस्तेमाल किया है। कुछ ऐसी बातें आईं कि आतंकवादी दूसरे करगिल की फिराक में थे। सैंकड़ों जवानों के साथ ऑपरेशन करीब 9 दिन तक चला। रोज मीडिया ब्रीफिंग होने लगी। आतंकियों के दो मददगार गिरफ्तार किए गए। हैलीकॉप्टरों का इस्तेमाल भी हुआ। जंगल इतना घना कि दिन में भी कुछ दिखाई न दें। आग लगाने की भी कोशिश हुई पर बारिश ने काम खराब कर दिया। ऑपरेशन बेहद कठिन था। बीच-बीच में गोलियां भी चलती थीं। लेकिन आतंकियों का सही पता नहीं चल रहा था। जो चार मारे गए बताए, उनके शव भी बरामद नहीं हो रहे थे। मामला इतना गंभीर हो गया था कि तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी को भी बयान देने पड़े। यह भी कहा गया कि आतंकियों को थकाया जा रहा है जिससे एनकांउटर लंबा चल रहा है। यही रणनीति इस महीने वाले एनकाउंटर में भी अपनाई गई। 

खैर देश के तमाम न्यूज चैनल भी पहुंच गए। मैं भी एक पत्रकार मित्र के साथ पहुंच गया मेंढर। जम्मू से करीब 215 किलोमीटर दूर। घटनास्थल मेंढर से भी करीब 10 किलोमीटर आगे था। जंगल से करीब 2 किलोमीटर पहले मीडिया को रोक दिया गया था। अंदर क्या हो रहा है कुछ पता नहीं। कभी कोई धुंआ दिख जाता था बस। बोफोर्स तोपें तक तैनात थीं जिससे स्थिति की गंभीरता का पता चल रहा था। लाइव के लिए न्यूज चैनलों की 10-12 ओबी वैन भी थीं। यहां टीवी चैनलों से जुड़ा मजेदार ज्ञान मिला मुझे। एक दो चैनल के  रिपोर्टर थोड़ी देर बाद अपडेट देने के लिए एक बड़े पत्थर के पीछे जाते। ऐसे झुक कर लाइव करते मानों गोलियां उनके सिर से छूु कर निकल रही है। जरा सी भी गर्दन उठी और गोली सीधा भेजा उड़ा देगी। बोलते वक्त जोश ऐसा कि देखने वाले रिपोर्टर जी की बहादुरी को सलाम ठोके बिना न रह सके। जबकि ऐसा था कुछ नहीं। असलियत यह थी कि ब्रीफिंग से ही सारी जानकारी मिल रही थी।  

इस बीच मैनें डीआईजी पुलिस से बात की। उनका कहना था कि तीन बंकर नष्ट कर दिए गए हैं। सर्च ऑपरेशन बेहद कठिन है। वे बोले कि बोफोर्स तोपों को एनकाउंटर से न जोड़ें। 

खैर रात होने को आई। मेंढर में ठहरने की व्यवस्था नहीं थी। हम शाम को वहां से दो घंटे सफर कर पुंछ पहुंच गए। होटल का प्रबंध किया और स्टोरी फाइल की। रात 11.30 बजे खाना खा ही रहे थे कि आर्मी के एक आला अधिकारी का बयान आ गया कि ऑपरेशन समाप्त। बताया कि शायद आतंकी भाग गए हैं। नौ दिन के ऑपरेशन के बाद कुछ नहीं मिला। 

मेरा सवाल यह था कि फिर जिन चार आतंकियों के मारे जाने की बात रोज की जा रही थी वो क्या था? शव तो मिले नहीं। इसका जवाब मिला अगले दिन राजौरी आ कर। एक पुलिस अधिकारी ने बताया कि हो सकता है ये आतंकवादियों की चाल हो। वे अपने रेडियो सेट से किसी ऐसी फ्रिक्वेंसी पर बात कर रहे हो जो हमारी एजेंसियों की पकड़ में आ जाए। वहीं से ये बात सामने आई कि उनके चार साथी मारे गए हैं। वे कभी दो की बात करते तो कभी तीन के मारे जाने की। 

असल में कंफ्लिक्ट जोन बेहद खतरनाक होते हैं। युद्ध से भी ज्यादा खतरनाक। तिस पर भौगोलिक दृष्टि से खतरनाक क्षेत्र उसे और मुश्किल बना देते हैं। हो सकता है इस बार भी आतंकी पहले जैसे चकमा दे कर भाग गए हों। मेरा मानना है कि मीडिया में सफलता-असफलता पर सवाल उठाने से पहले ये भी समझ लेना चाहिए कि कुछ ऑपरेशन इतने जटिल होते हैं कि हम-आप वैसा अनुमान भी नहीं लगा सकते।

(ये लेख हिमाचल के वरिष्ठ जर्नलिस्ट हिमंत जी द्वारा लिखा गया है)

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