"सदन की खामोशी बनाम सड़क का प्रतिरोध! संघर्ष का नया चेहरा विजेंद्र मेहरा"

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✍️ Rupansh Rana

भारतीय संविधान में जैसा राज्य होने की पैरवी की गई है, वह एक कल्याणकारी राज्य होना था—एक ऐसी व्यवस्था जहाँ जनता सिर्फ चुनावों में नहीं, जीवन के हर मोड़ पर प्रतिनिधियों द्वारा संरक्षित और सुनी जाए। लोकतंत्र का यह विचार आज हिमाचल प्रदेश की राजनीति में कहीं दूर छूटता दिखाई देता है। सदन के भीतर बहसें हैं, नारे हैं, आरोप-प्रत्यारोप हैं, लेकिन जनता के वास्तविक सवालों पर जैसे मोटी चुप्पी बिछी हुई है—रोज़गार, आजीविका, रेहड़ी-फड़ी वालों की पीड़ा, मजदूरों की असुरक्षा, किसानों की चिंताएँ—ये सब मुद्दे उस विधानसभा के भीतर जगह नहीं पा रहे, जिसकी असली जिम्मेदारी थी वह सदन में अपने लिए व्यवस्थाओं में लगा है।

और इसी सन्नाटे को चीरती हुई सड़क पर एक लाल टोपी दिखाई देती है। यह केवल एक टोपी नहीं, बल्कि एक प्रतिरोध का प्रतीक है—एक याद दिलाने वाला चिन्ह है कि लोकतंत्र की जड़ें केवल सत्ता के गलियारों में नहीं, बल्कि लोगों के बीच, उनके संघर्षों और उनकी तकलीफों में बसती हैं। लाल टोपी पहने खड़ा चेहरा है विजेंद्र मेहरा—वह नेता जिसने खुद को जनता के लिए गढ़ा है, और जिसे आज हिमाचल प्रदेश में जननेता राकेश सिंघा के बाद संघर्ष का चेहरा कहा जा सकता है।

यह विडंबना ही है कि जिस प्रदेश में 68 विधायक जनता का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुने गए हैं, वहाँ जनता की लड़ाई एक ऐसा व्यक्ति लड़ रहा है, जो न सत्ता में है, न पद की लालसा रखता है, न किसी कुर्सी का मोह पाले हुए है। विजेंद्र मेहरा इस समय CPIM शिमला ज़िला सचिव हैं, CITU हिमाचल प्रदेश के राज्य अध्यक्ष हैं, और उससे भी बढ़कर—वह नेता हैं जो हर रोज़ सड़क पर जनता के साथ खड़े दिखाई देता है। यह पहचान उन्हें किसी चुनावी जीत से नहीं मिली, बल्कि उनके संघर्षों, त्याग और निरंतर जनसंपर्क से निर्मित हुई है।

भारतीय लोकतंत्र की लंबी यात्रा में धरना हमेशा एक महत्वपूर्ण राजनीतिक विधि रहा है। अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ़ जो प्रतिरोध खड़ा हुआ, वह धरनों और आंदोलनों की बदौलत ही जन-चेतना बना। बाद के दशकों में मजदूर आंदोलनों, किसान आंदोलनों, जेपी आंदोलन, और विभिन्न जनसंगठनों ने धरनों को ही जनता की आवाज़ का सबसे विश्वसनीय माध्यम बनाया। लेकिन आज कई नेता इस परंपरा से कतराने लगे हैं, जैसे जनता का सवाल पूछना व्यवस्था के लिए बोझ हो। यह भूल कर दी जाती है कि लोकतंत्र का सबसे जीवंत हिस्सा वही सड़क है, जहाँ लोग अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाते हैं। इसी खोती हुई लोकतांत्रिक विरासत को विजेंद्र मेहरा अपनी उपस्थिति, अपने साहस और अपनी निरंतरता से पुनर्जीवित कर रहे हैं।

 जब धर्मशाला में सदन चल रहा था और भीतर विधायकों के वेतन-भत्तों की चर्चा सत्ता और विपक्ष को समान रूप से उत्साहित कर रही थी, तभी बाहर शिमला की सड़क पर मेहरा रेहड़ी-फड़ी वालों के हक़ और अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा था। उनके लिए राजनीति का अर्थ सत्ता से संवाद नहीं, बल्कि जनता के दर्द से संवाद है।

मेहरा की पृष्ठभूमि भी उनके राजनीतिक चरित्र को स्पष्ट करती है। सैनिक स्कूल के अनुशासन और प्रतिभा से लबरेज़ ये चेहरा जब हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय पहुंचा तो सैनिक स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय में पीएचडी की प्रगति तक, उनके पास एक उज्ज्वल करियर था। दो सरकारी नौकरियाँ भी उन्हें मिलीं, जिन्हें अधिकांश लोग सफलता का प्रतीक मानते हैं। लेकिन मेहरा ने यह सब त्याग दिया, क्योंकि उनका विश्वास था कि जनता की लड़ाई केवल दफ्तरों में नहीं, बल्कि मैदान में उतरकर ही लड़ी जा सकती है।

युवा उम्र में SFI के माध्यम से उन्होंने संघर्ष, संगठन और सामूहिक नेतृत्व की भाषा सीखी। पर उनकी वैचारिक दिशा को सबसे अधिक आकार दिया गुरु मोहर ने—हिमाचल की वामपंथी राजनीति के मजबूत स्तंभ। गुरु मोहर ने न केवल मेहरा को संगठन का ढांचा सिखाया, बल्कि यह भी समझाया कि जनता के बीच खड़ा होने वाला नेता कितना उत्तरदायी, अध्ययनशील और संवेदनशील होना चाहिए। आज भी मेहरा के भाषणों, उनकी स्पष्टता और उनकी राजनीतिक संतुलन क्षमता में उस मार्गदर्शन की छाप साफ़ दिखती है।

हिमाचल में राकेश सिंघा जैसी शख्सियत लंबे समय तक संघर्ष की राजनीति का सबसे प्रखर चेहरा बने हुए है तो वहीं उसी छाप को लेकर विजेंद्र मेहरा भी आगे आ रहे हैं। आज जब सड़क पर खड़े रहने की बात आती है, जनता की आवाज़ बनने की बात आती है, तो विजेंदर मेहरा उस भूमिका को सबसे प्रभावी ढंग से निभाते दिखाई देते हैं। कर्मचारी हों, मजदूर हों, किसान हों, छात्र हों या छोटे व्यापारी—हर वर्ग की लड़ाई में मेहरा सबसे आगे खड़े हुए नज़र आते हैं।

और शायद यही वह बिंदु है जहाँ हिमाचल के 68 विधायकों की खामोशी जनता को और ज़्यादा तीखी लगने लगती है। लोकतंत्र केवल चुनी हुई कुर्सियों पर निर्भर नहीं हो सकता। जब प्रतिनिधि जनता से दूर हो जाते हैं, तब जनता को सड़कों पर आना होता है। आज बेरोजगार युवा दर दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं लेकिन सदन खामोश रहा। विजेंद्र मेहरा का यदि सोशल मीडिया अकाउंट आप देखेंगे तो पाएंगे कि हर दिन किसी न किसी मुद्दे को लेकर प्रखर होते हैं।

विजेंद्र मेहरा कल्याणकारी राज्य की खोई हुई आत्मा की याद दिलाते हैं। वे सिद्ध करते हैं कि राजनीति वह नहीं, जो व्यवस्था दिखाती है, बल्कि वह है जो व्यवस्था छिपा देती है—जनता का संघर्ष, उनका दर्द, उनका अधिकार, उनकी उम्मीदें।

आज जब हिमाचल की राजनीति सत्ता के सुख में डूबी हुई दिखाई देती है, तब सड़क पर बैठा एक अकेला लाल टोपी वाला यह उद्घोष कर रहा है कि लोकतंत्र तब तक जीवित है, जब तक जनता की आवाज़ दबने नहीं दी जाती। और कभी-कभी एक अकेला नेता पूरे तंत्र की खामोशी पर भारी पड़ जाता है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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