हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट ने पांच बीघा भूमि नियमितीकरण नीति को रद्द करते हुए राज्य में सरकारी और वन भूमि से अवैध कब्जे हटाने का आदेश दिया है। इस निर्णय से करीब 23 साल पुरानी नीति पूरी तरह असंवैधानिक मानी गई है, जिससे 1,65,000 से अधिक लोग प्रभावित होंगे।
2001 में हिमाचल प्रदेश सरकार ने पांच से 20 बीघा तक की भूमि नियमित करने की नीति लागू की थी। इसके तहत जिन लोगों ने सरकारी भूमि पर अवैध कब्जा किया था, वे अपनी जमीन को कानूनी रूप से अपने नाम कर सकते थे। इसका उद्देश्य गरीब और भूमिहीनों को राहत देना था। लेकिन समय के साथ यह नीति बड़े पैमाने पर दुरुपयोग में बदल गई। कई प्रभावशाली व्यक्तियों ने इस अवसर का फायदा उठाकर बड़ी मात्रा में जमीन कब्जा कर ली। पर्यावरणविदों और नागरिकों ने इस नीति का विरोध किया क्योंकि इससे वनों की कटाई और प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान हुआ।
इस पूरे मामले में मुख्य याचिकाकर्ता पूनम गुप्ता थीं, जिन्होंने कोर्ट में इस नीति की वैधता को चुनौती दी। उन्होंने तर्क दिया कि यह नीति मनमानी और असंवैधानिक है, जिससे प्रदेश की सरकारी जमीन और पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचा है। केंद्र सरकार ने भी प्रदेश सरकार की इस नीति को बनाने के अधिकार पर सवाल उठाए।
हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट की खंडपीठ, जिसमें न्यायमूर्ति विवेक सिंह ठाकुर और न्यायमूर्ति बिपिन चंद्र नेगी शामिल थे, ने इस नीति और संबधित कानून की धारा 163-A को निरस्त कर दिया। कोर्ट ने आदेश दिया है कि प्रदेश सरकार 28 फरवरी 2026 तक सभी अवैध कब्जों को हटाए।
इस फैसले के कारण वन और सरकारी भूमि की व्यापक हानि, सरकारी राजस्व की कमी, पर्यावरणीय असंतुलन और प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बढ़ा है। कोर्ट ने कहा कि “जरूरतमंद” के नाम पर अमीर और प्रभावशाली लोग इस नीति का दुरुपयोग कर रहे थे, जो कि कानून के खिलाफ है।
यह फैसला हिमाचल प्रदेश में भूमि प्रशासन, पर्यावरण संरक्षण और कानून व्यवस्था की मजबूती के लिए एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। अब सरकार को सख्ती से अवैध कब्जों को हटाना होगा और भविष्य में दंडनीय अतिक्रमण के खिलाफ कड़े कानून लागू करने होंगे।