Rupansh Rana ✍️
विश्व में विश्वविद्यालयों के निर्माण शायद इसलिए भी हुआ होगा कि विश्वविद्यालय किसी भी समाज की बौद्धिक रीढ़ बन सकें, जहां सिर्फ़ डिग्री नहीं बल्कि संवेदनशील, वैज्ञानिक और जवाबदेह नागरिक तैयार किए जा सकें। उच्च शिक्षा संस्थानों की पहली जिम्मेदारी होती है कि वे छात्रों को सुरक्षित, गरिमापूर्ण और स्वास्थ्य‑अनुकूल वातावरण दें, ताकि कोई भी विद्यार्थी अपनी पढ़ाई शारीरिक या मानसिक जोखिम उठाकर न करे। छात्र कल्याण से जुड़ी राष्ट्रीय नीतियाँ साफ कहती हैं कि संस्थान “क्वालिटी लाइफ़” और congenial learning environment सुनिश्चित करें, भेदभाव रहित सुविधाएँ दें और हर स्तर पर छात्रों के हित को प्राथमिकता पर रखें।
इन्हीं आदर्शों के बीच हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला का केंद्रीय पुस्तकालय सर्दियों में एक अलग ही तस्वीर पेश करता है, जहां रोज़ हज़ारों छात्र competitive exams और रिसर्च की तैयारी करते हैं। नवंबर से लेकर फरवरी‑मार्च के अंत तक लाइब्रेरी के चार मंज़िला भवन में लगभग 20 से ऊपर केरोसिन हीटर लगाए जाते हैं, जो सुबह से शाम 8 बजे के करीब तक घंटों जलते रहते हैं और पढ़ाई के माहौल को गर्मी के बजाय धुएँ, बदबू और चुभन से भर देते हैं।
छात्र बताते हैं कि केरोसिन की गंध इतनी तेज़ होती है कि वे मुंह पर हाथ या रुमाल रखकर बैठने को मजबूर हैं, कई बार ठंड में खिड़कियाँ खोलना पड़ती हैं लेकिन हालात वैसे ही रहते हैं। इस दौरान लाइब्रेरी का जनरल सेक्शन लगभग 12 घंटे खुला रहता है और तमाम लाइब्रेरी Halls अक्सर पूरा भरे रहते हैं, यानी जहरीली हवा का असर एक साथ सैकड़ों विद्यार्थियों पर पड़ता है।
केरोसिन हीटर की सस्ती गर्मी के साथ मौत को न्यौता
ये हम जानते है कि बहुत से वैज्ञानिक अध्ययनों ने साबित किया है कि केरोसिन हीटर जलने पर कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड और कई वाष्पशील कार्बनिक gases निकलते हैं, जो इनडोर एयर क्वालिटी को खतरनाक स्तर तक गिरा देते हैं। लंबे समय तक संपर्क रहने पर क्रॉनिक CO poisoning, फेफड़ों की कार्यक्षमता में कमी, सिरदर्द, चक्कर, आँखों और गले में जलन, एलर्जी और सांस की बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है, खासकर उन छात्रों के लिए जिन्हें पहले से अस्थमा या श्वसन संबंधी समस्या है। अंतरराष्ट्रीय शोध तो यह भी दिखाते हैं कि ऐसे अनवेंटेड हीटरों से निकलने वाले अल्ट्रा‑फाइन कण और NO2 इतनी खतरनाक है जिसके चलते कई देशों में विश्वविद्यालय हॉस्टल और सार्वजनिक इमारतों में इनका प्रयोग प्रतिबंधित या कड़ाई से नियंत्रित है। जबकि HPU लाइब्रेरी में यही केरोसिन हीटर दिन‑रात जलते हैं, और छात्र आँखों में मिर्ची जैसा दर्द, जलन, खांसी, गले में खराश और सांस फूलने की शिकायतों के बावजूद दवाइयाँ खाकर पढ़ाई जारी रखने को मजबूर हैं।
बजट फिर भी ‘कागज़ों’ में
पिछले वर्ष विभिन्न छात्र संगठनों ने लाइब्रेरी के बाहर प्रदर्शन कर सेंट्रल हीटिंग सिस्टम लगाने और केरोसिन हीटर हटाने की मांग को जोर‑शोर से उठाया था। आरटीआई के तहत मिली जानकारी के अनुसार लाइब्रेरी के लिए करीब 6.50 लाख रुपये का बजट सेंट्रल हीटिंग स्कीम के लिए स्वीकृत हुआ और दावा किया गया कि लाइब्रेरी के नीचे बॉयलर रूम का निर्माण किया गया है, लेकिन छात्रों को आज तक न तो वह बॉयलर रूम दिखाई दिया और न ही पाइपों से आती सुरक्षित गर्म हवा। यानी कुलमिलाकर कोई कार्य धरातल पर नहीं हुआ। मुख्य लाइब्रेरी में सेंट्रल हीटिंग सिस्टम की योजना वर्षों से अधर में लटकी है और हर सर्दी में छात्र या तो जमती ठंड या जहरीले हीटरों के बीच चुनाव करने को मजबूर हैं। यह स्थिति सिर्फ प्रशासनिक सुस्ती नहीं, बल्कि विद्यार्थियों के प्रति संस्थान के नज़रिए पर भी गंभीर सवाल खड़े करती है।
अफ़सरों के कमरों में इलेक्ट्रॉनिक हीटर
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जिस कैंपस में लाइब्रेरी के छात्र केरोसिन के धुएँ में घुटते हैं, उसी विश्वविद्यालय के प्रशासनिक ब्लॉक और कई विभागों के दफ्तरों में आराम से इलेक्ट्रिक हीटर चलाए जा रहे हैं। एक फैकल्टी सदस्य के हवाले से यह बात सामने आई कि अधिकारियों के कमरों में इलेक्ट्रॉनिक व केरोसिन दोनों तरह के हीटर उपलब्ध हैं, जबकि लाइब्रेरी, जो रात‑दिन खुली रहती है, अभी भी पुराने ‘केरो‑हीटरों’ के भरोसे है। यह सीधे‑सीधे संसाधनों के वितरण में भेदभाव और छात्र कल्याण की जगह सत्ता‑केंद्रित सुविधाओं को प्राथमिकता देने का उदाहरण है।
विश्वविद्यालय की संवैधानिक और नैतिक जवाबदेही
छात्र कल्याण पर बनी राष्ट्रीय रिपोर्टें बार‑बार जोर देती हैं कि उच्च शिक्षा संस्थान हर छात्र को सुरक्षित परिसर, समान अवसर और बुनियादी सुविधाएँ देने के लिए बाध्य हैं और किसी भी प्रकार का भेदभाव या स्वास्थ्य जोखिम स्वीकार्य नहीं है। जब विश्वविद्यालय स्वयं अपनी नीतियों में “बेहतर लिविंग एनवायरनमेंट” और “होलिस्टिक डेवलपमेंट” की बात करता है, तो छात्रों को जहरीली हवा में बैठाकर पढ़ने पर मजबूर करना न सिर्फ नीति‑विरुद्ध, बल्कि नैतिक रूप से भी अस्वीकार्य है।
सर्दी के मौसम में जब प्रतियोगी परीक्षाओं और सेमेस्टर की पढ़ाई का सबसे संवेदनशील समय होता है, उसी दौरान यदि छात्रों की ऊर्जा किताबों से ज्यादा धुएँ से लड़ने में खर्च हो, तो यह शिक्षा के अधिकार, स्वास्थ्य के अधिकार और गरिमापूर्ण वातावरण के बुनियादी सिद्धांतों के साथ सीधा अन्याय है।
हम ये दाबे के साथ कह सकते हैं कि यदि विश्वविद्यालय स्वास्थ्य विशेषज्ञों से इनडोर एयर क्वालिटी की जांच करवाकर रिपोर्ट सार्वजनिक करे और अब तक बीमार पड़े छात्रों के आंकड़े संकलित कर जिम्मेदारी तय करे तो असलियत सामने आ जाएगी क्योंकि ये साफ तौर पर प्रशासनिक लापरवाही है जो विश्वविद्यालय को तुरंत ठीक करने की जरूरत है। मुझे याद है जब मैं 2019 में विश्वविद्यालय आया था तब यह मुद्दा बहुत चर्चा में था और बजट के प्रावधान की बात सुनने में आती थी लेकिन आजतक बच्चे दम से घुट रहे हैं।
सबसे बढ़कर, विश्वविद्यालय प्रबंधन को यह समझना होगा कि किताबों से भरी लाइब्रेरी तब ही “ज्ञान का मंदिर” बनती है, जब वहां बैठा हर छात्र खुद को सुरक्षित, सम्मानित और सुना हुआ महसूस करे—न कि तब, जब उसे हर पन्ना पलटते समय यह डर सताए कि अगली सांस में कितनी जहरीली गैसें उसके भीतर जा रही हैं।
(हालांकि अभी बर्फ नहीं गिरी है)
